ना किसी कि आँख का नूर हूँ, ना किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्त-इ-गुबार हूँ
मैं नहीं हूँ नाघ्मा-इ-जान फ़ज़ा, कोई सुन के मुझ को करेगा क्या
मैं बारे बिरोग की हूँ सदा, मैं बारे दुखों की पुकार हूँ
मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझ से बिचाद गया
जो चमन खिजान से उजर गया, मैं उसी की फसल-इ-बहार हूँ
ना तो मैं किसी का हबीब हूँ, ना तो मैं किसी का रकीब हूँ,
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजाड़ गया वो दयार हूँ.
पढ़े फातिहा कोई आए क्यूँ, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ?
कोई आके शमा जलाए क्यूँ, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
ना किसी कि आँख का नूर हूँ, ना किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्त-इ-गुबार हूँ
Sunday, June 27, 2010
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