Wednesday, June 30, 2010

Tasveer

तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी
ये तेरी तरह मुझसे तो शर्मा न सकेगी

मैं बात करूँगा तो ये खामोश रहेगी
सीनेसे लगा लूँगा तो ये कुछ न कहेगी
आराम वो क्या देगी जो तदपा न सकेगी

यह अन्केहं हैं ठहरी हुई, चुंचल वोह निगाहें
यह हाथ हैं सहमे हुए, और मस्त वोह बाहें
पर्ची तो इंसान के काम आ न सकेगी.

इन होटों को फैअज़ मैं कुछ दे न सकूंगा
इस ज़ुल्फ़ को भी हाथ मैं में ले न सकूंगा
उलझी हुई रातों को सुलझ न सकेगी

तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी

Sunday, June 27, 2010

ना किसी कि आँख का नूर हूँ, ना किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम सके, मैं वो एक मुश्त--गुबार हूँ

मैं नहीं हूँ नाघ्मा--जान फ़ज़ा, कोई सुन के मुझ को करेगा क्या
मैं बारे बिरोग की हूँ सदा, मैं बारे दुखों की पुकार हूँ

मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझ से बिचाद गया
जो चमन खिजान से उजर गया, मैं उसी की फसल--बहार हूँ

ना तो मैं किसी का हबीब हूँ, ना तो मैं किसी का रकीब हूँ,
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजाड़ गया वो दयार हूँ.

पढ़े फातिहा कोई आए क्यूँ, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ?
कोई आके शमा जलाए क्यूँ, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ

ना किसी कि आँख का नूर हूँ, ना किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम सके, मैं वो एक मुश्त-इ-गुबार हूँ

A Ghazal from Last Empror Bhadur Shah Zafar

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है अालम--नापायेदार में

बुलबुल को पासबाँ से सैयाद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिखी थी फ़स्ल--बहार में

इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल--दाग़दार में

इक शाख़--गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमाँ
काँटे बिछा दिये हैं दिल--लालाज़ार में

उम्र--दराज़ माँगके लाए थे चार दिन
दो अारज़ू में कट गए, दो इन्तज़ार में

दिन ज़िन्दगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएँगे कुंज--मज़ार में

कितना है बदनसीबज़फ़रदफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी मिली कू--यार में

Translation

My heart has no repose in this despoiled land
Who has ever felt fulfilled in this futile world?

The nightingale complains about neither the sentinel nor the hunter
Fate had decreed imprisonment as the harvest of spring

Tell these longings to go dwell elsewhere
What space is there for them in this besmirched heart?

Sitting on a branch of flowers, the nightingale rejoices
I have strewn thorns in the garden of my heart

I asked for a long life, I received four days
Two passed in desire, two in waiting.

The days of life are over, evening has fallen
I shall sleep, legs outstretched, in my tomb

How unfortunate is Zafar! For his burial
Not even two yards of land were to be had, in the land of his beloved.[15]